Friday, October 5, 2012

Is FDI Only Solution to India's Fiscal Problems? What Caused Fiscal Problems?


देसी दौलत लूटेंगे विदेशी

।।अतुल कुमार अंजान।।
(लेखक भाकपा नेता हैं)  ( collected from Hindi daily  newspaper 'Prabhat Khabar' 6th Oct. 2012)
यूपीए -2 सरकार सत्ता में आने के बाद से ही अपने पहले दौर के आर्थिक सुधारों को समय-समय पर लागू करती एवं आगे बढ़ाती रही है. अपनी हर नयी नीति को वह जनपक्षीय बताती रही है. साथ ही यह गारंटी भी देती रही है कि यह आमजन के हित में होगा, मुद्रास्फीति को कम करने के साथ-साथ महंगाई पर भी लगाम लगायेगा.
लोकलुभावन वादे के तहत यह भी कहा जाता रहा है कि इस विकास की छलांग लंबी होगी और युवाओं के लिए रोजगार के नये व असीमित साधन सामने आयेंगे. लेकिन यूपीए-1 और यूपीए-2 सरकार के समूचे कार्यकाल में रोजगार के अवसर बढ़े हैं या घटे हैं? आकलन करने पर पता चलता है कि संगठित व असंगठित, दोनों ही क्षेत्रों में आर्थिक सुधारों के नाम पर जो नीतियां लागू की गयीं, उससे काम पर लगे लाखों लोगों को बाहर का ही रास्ता दिखाया गया.
नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के चलते साढ़े तीन लाख से ज्यादा छोट-मंझोले उद्योग बंद हो गये हैं. दिल्ली से कोलकाता जाते वक्त रेल की पटरियों के दोनों ओर पहले जिन चिमनियों से धुआं निकलता दिखता था, अब वहां की राख ठंडी हो गयी है. अर्थव्यवस्था में तथाकथित उछाल और 8 फीसदी विकास दर के बाद भी देश में भूखे सोने वालों की तादाद क्या कम हुई है? आखिर क्या कारण है कि 8 फीसदी विकास दर हासिल करने के बाद भी दुनिया के आधे भूखे भारत में हैं और ये बिना खाये सोने को मजबूर हैं. आधे भूखे लोग दुनिया के 204 देशों में सोते हैं. खून की कमी की शिकार दुनिया की 43 फीसदी महिलाएं भारत में ही हैं. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के कुपोषित बच्चों का 45 फीसदी से अधिक हिस्सा भारत में है. जिन देशों की विकास दर दो फीसदी है, वहां की आधी आबादी भूखी और कुपोषित बच्चों की विशालतम संख्या लिये नहीं है. यहीं मूल प्रश्न उठता है कि यह विकास किसका और किसके लिए है?
डॉ मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों से देश के 12 करोड़ अभिजात्य वर्ग के लोग थोड़ा-बहुत आनंद उठा रहे हैं. उनके लिए महंगाई मुख्य समस्या नहीं है. प्रधानमंत्री 17 बार देश को आश्वासन दे चुके हैं कि सरकार महंगाई रोकेगी. विगत 15 अगस्त को लालकिले से प्रधानमंत्री ने कहा था कि कुछ ही दिनों में महंगाई रुक जायेगी. लेकिन एक महीने बाद ही महंगाई को नयी बुलंदी पर पहुंचा दिया गया. डीजल के दाम पांच रुपये लीटर बढ़ने और एलपीजी गैस पर से सब्सिडी वापस लेने से खानपान की दैनिक आवश्यकताओं की कीमत 15-20 फीसदी बढ़ गयी है. राजधानी दिल्ली में पिछले एक हफ्ते में आलू 15 रुपये प्रतिकिलो से बढ़ कर 28 रुपये पर पहुंच गया है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दावों का क्या हुआ?
विदेशी कंपनियां बीमा क्षेत्र व पेंशन की दौलत को लूट ले जायेंगी. लेकिन यह कहा जा रहा है कि इससे रोजगार के नये अवसर पैदा होंगे. अभी बीमा क्षेत्र से अजिर्त धन भारत की विकास योजनाओं में लगता है. सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनियां धन संग्रह कर उसे योजना आयोग को देती हैं, जिसे ग्रामीण व बुनियादी विकास की योजनाओं पर खर्च किया जाता है. अकेले स्वच्छ जल की व्यवस्था के लिए गांवों-शहरों में ऊंची-ऊंची टंकियों के निर्माण में 80 फीसदी धन एलआइसी का लगा हुआ है. विदेशी बीमा कंपनी व विनिवेश से आया धन देश को शुद्ध पानी पिलायेगा या अपना मुनाफा कामयेगा? इस सीधे प्रश्न का जवाब अर्थव्यवस्था के लंपटीकरण के लिए जिम्मेवार सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को देना ही चाहिए.
जिंदगीभर नौकरी कर पैसा बचा कर अपनी बेटी की शादी करने या रहने के लिए मकान बनाने या वृद्धावस्था में आर्थिक सहारे को सुनिश्चित करने के लिए जिंदगी भर अपनी आवश्यकताओं को काट-काट कर पेंशन राशि जोड़ने वाले पेंशनधारकों के पैसे को विदेशी कंपनियों को देने का अधिकार मनमोहन व सोनिया को कैसे प्राप्त हो गया? पेंशनधारकों का पैसा शेयर बाजार, जुआघर में विदेशी कंपनियों द्वारा लगाये जाने के बाद हुए नुकसान की जिम्मेवारी क्या सरकार लेगी? क्या सौ रुपये की पेंशन की राशि पर प्रति वर्ष 115 रुपये देने का वादी मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार करेगी? इस गरीब देश में परदेशी दौलत को देशी दौलत लूटने का अधिकार यूपीए सरकार क्यों देना चाहती है? दावे हो रहे हैं कि इससे देश विकसित हो जायेगा, पर जब प्रधानमंत्री सात साल में महंगाई को रोक नहीं सके, तो अब उन पर कैसे भरोसा किया जाये? अब तो
यही कहेंगे-
बड़ी-बड़ी बातों के चक्कर में छोटी भी गयी.
पतलून की चाहत में लंगोटी भी गयी.

सुधार के ये कदम काफी नहीं


।।प्रो अरविंद मोहन।।
(लेखक अर्थशास्त्री हैं)
मौजूदा यूपीए सरकार राजनीतिक दलों के विरोध को दरकिनार कर जिस प्रकार आर्थिक सुधार के फैसले ले रही है, उससे साफ जाहिर होता है कि अब सरकार के पास आर्थिक विकास दर को आगे बढ़ाने के दूसरे विकल्प नहीं रह गये है. लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या इन फैसलों से अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आयेगी? जवाब है, फिलहाल ऐसा नहीं लगता. अगर ये फैसले दो साल पहले लिये गये होते, तो आज अर्थव्यवस्था की स्थिति ऐसी नहीं होती. मसलन, विमानन क्षेत्र में अगर सरकार पहले ही विदेशी पूंजी की इजाजत दे देती, तो आज इस क्षेत्र की स्थिति खराब नहीं होती. अब अत्यंत खराब माली हालत वाली विमानन कंपनियों में शायद ही कोई विदेशी निवेशक निवेश करना चाहेगा.
सरकार की गलत नीतियों के कारण जब अर्थव्यवस्था की बुनियाद ही कमजोर हो जाये, तो केवल विदेशी पूंजी के सहारे इसे दुरुस्त नहीं किया जा सकता है. देश की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए बड़े पैमाने पर सुधार करने की जरूरत है. राजस्व और मौद्रिक नीति को सख्त बनाना जरूरी है. पिछले कुछ वर्षो से भ्रष्टाचार के मामले लगातार सामने आने के कारण सरकार नीतिगत फैसले लेने में शिथिल पड़ गयी थी. इन्फ्रास्ट्रक्चर की कई योजनाएं पूंजी के अभाव में लटक गयीं. बिजली, सड़क, बंदरगाह के विकास थम से गये. भ्रष्टाचार बढ़ने और नीतिगत स्तर पर ठहराव के कारण घरेलू और विदेशी निवेशकों का भरोसा कम होने लगा. हालात ऐसे हो गये कि वैश्विक स्तर पर खराब आर्थिक स्थिति के बावजूद विदेशी निवेशक भारतीय बाजार से पैसा निकालने लगे, जबकि भारत का बाजार इतना बड़ा है कि यहां मंदी के दौरान भी काफी संभावना थी. इस तरह जब सरकार के सामने आर्थिक और राजनीतिक मोर्चे पर विकल्प सीमित हो गये, तो उसने अपनी छवि बेहतर करने के लिए कड़े फैसले लेने का निर्णय किया.
इन फैसलों के कारण राजनीतिक भी हैं और आर्थिक भी. फैसलों के राजनीतिक होने का अंदाजा प्रधानमंत्री के उस बयान से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा कि वे लड़ते हुए जाना पसंद करेंगे. अगर प्रधानमंत्री को लड़ते हुए ही जाना था, तो ऐसे फैसले पहले ही ले लेने से उन्हें किसने रोका था? आर्थिक मोर्चे पर लगातार खराब होते हालात के बाद पहले रिटेल में और अब बीमा और पेंशन क्षेत्र में एफडीआइ की सीमा को बढ़ाने का फैसला कर सरकार ने संदेश देने की कोशिश की है कि वह आर्थिक सुधार के नये उपायों को लागू करने से अब पीछे नहीं हटने वाली है. यह वही सरकार है, जो अपने सहयोगियों के विरोध को देखते हुए ऐसे फैसले पर आगे नहीं बढ़ पा रही थी. विरोध खास कर बीमा, रिटेल और पेंशन में एफडीआइ को लेकर था, लेकिन विकास योजनाओं को आगे बढ़ाने से किसी राजनीतिक दल को ऐतराज नहीं था.
अर्थव्यवस्था के पटरी से उतरने का कारण है भ्रष्टाचार के मामलों का उजागर होना, नीतिगत स्तर अनिर्णय की स्थिति और सरकार के खर्चो में बेतहाशा वृद्धि. इसी बीच वैश्विक आर्थिक मंदी का असर गहराया, जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को भी अपनी चपेट में ले लिया. आर्थिक विकास की दर गिरने से मनमोहन सिंह के आर्थिक प्रबंधन और छवि पर प्रतिकूल असर पड़ रहा था. मध्यवर्ग पहले ही महंगाई के कारण यूपीए सरकार से नाखुश है. इस बीच विकास दर गिरने के साथ नौकरियों के सीमित होने के कारण मध्यवर्ग के सपनों पर चोट पहुंचने लगी. 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस को मध्यवर्ग का बड़ा समर्थन हासिल हुआ था. ऐसे में मध्यवर्ग के बढ़ते असंतोष को कम करने के लिए मनमोहन सिंह और कांग्रेस के सामने आर्थिक सुधार को आगे बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था.
2009 के आम चुनाव में यूपीए को जैसा जनादेश मिला था, उससे उम्मीद थी कि सरकार यूपीए-1 की गलतियों से सबक लेते हुए सभी मोर्चो पर बेहतर प्रदर्शन करेगी और नीतियों के क्रियान्वयन में तेजी आयेगी. लेकिन बीते तीन वर्षो में नीतियों के स्तर पर सरकार दिशाहीन व असहाय दिखी. समय के साथ यह स्थिति और भी खराब होती गयी. यूपीए सरकार की दूसरी पारी का आर्थिक और राजनीतिक, दोनों स्तरों पर प्रदर्शन निराशाजनक रहा है. मनमोहन सिंह को देश में आर्थिक सुधार करने का श्रेय दिया जाता है. उनकी सरकार को दूसरी बार मिले जनादेश में वामदलों के समर्थन की जरूरत नहीं रह गयी, जो आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के कई कदमों का विरोध कर रहे थे. लेकिन यूपीए-2 सरकार का प्रदर्शन पहले से भी खराब हो गया.
दूसरे कार्यकाल में यूपीए सरकार के आर्थिक कुप्रबंधन के कारण अर्थव्यवस्था की स्थिति बिगड़ गयी और विकास दर को दोहरे अंक में ले जाने का सपना कहीं गुम हो गया. आर्थिक स्तर पर सरकार की दिशाहीनता के कारण गवर्नेस प्रभावित हुआ. जब हालात हाथ से निकलने लगे तो सरकार ने मजबूरी में आर्थिक सुधार के फैसले लेने में तेजी दिखायी.
जिस प्रकार 1991 में आर्थिक हालात खराब होने के बाद मजबूरी में आर्थिक सुधार की नीतियां लागू की गयीं, उसी प्रकार मौजूदा फैसला भी मजबूरी का परिणाम है. इन फैसलों पर अमल कितना आगे बढ़ पायेगा, यह गुजरात और हिमाचल प्रदेश में इसी साल हो रहे विधानसभा चुनावों के नतीजों से तय होगा. इन्हीं नतीजों से यूपीए सरकार के कार्यकाल का निर्धारण भी होगा. रिटेल की तरह बीमा और पेंशन क्षेत्र में एफडीआइ की सीमा बढ़ाये जाने का विरोध भाजपा शायद नहीं करेगी, क्योंकि भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने ही इन क्षेत्रों में 26 फीसदी एफडीआइ की इजाजत दी थी. भाजपा सुधार विरोधी पार्टी के तौर पर नहीं दिखना चाहेगी, क्योंकि पार्टी ऐसा करेगी तो मध्यवर्ग के बड़े तबके का समर्थन खो सकती है. भारत में बीमा और पेंशन के क्षेत्र में विस्तार की काफी संभावनाएं हैं. विदेशी पूंजी निवेश की सीमा बढ़ाने से इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश होगा और लोगों के लिए रोजगार के नये अवसर सामने आयेंगे. निवेशकों में भारतीय बाजार के प्रति भरोसा बढ़ेगा.
लेकिन केवल विदेशी पूंजी निवेश से ही आर्थिक हालात नहीं सुधरेंगे. हालात बदलने के लिए संस्थागत खामियों को दूर करना होगा, गवर्नेस को पारदर्शी बनाना होगा. बीमा और पेंशन में एफडीआइ की सीमा बढ़ाने के अलावा सरकार को इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं पर तेजी से अमल करना होगा. इससे दूसरे क्षेत्रों में भी रौनक लौटेगी, जो अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए फायदेमंद होगा.

Manmohan Style Reformation


New definition of REFORMATION as advocated and propagated by learned Prime Minister Mr. Manmohan Singh, learned Finance Minister Mr. Chidambram and their followers in RBI and in government is nothing but inviting foreigners to save Indian economy. Since 1991 learned economists of this country like Manmohan Singh could not solve the issue of financial crisis said to be created by Pre-1990 governments are now depending on foreigners to solve the same financial crisis aggravated by so called reformists during last two decades.

It is ironical that responsibility of treatment and rejuvenation of Indian sick economy has been given to those foreigners who have completely damaged the economic health of their own countries. Foreign destructors have become protectors of Indian economy in the eyes of Indian reformists. USA and European countries are themselves in acute financial crisis but they are good in the eyes of Indian politicians. Reformation in its new Awtar is nothing but foreign investment in India and giving all freedom to corporate houses and imposing all restrictions on Indian common men.Now India has to accept FDI oriented Indian economy as desired by Manmohan singh led UPA government.

Students who have chosen the Economic, political science, human science or social welfare or public administration or financial management as prime subject, they should know the new meaning of reformation propagated by Manmohan Singh led UPA government. Students should take class from Manmohan Singh to learn more about reformation and understand the greater dimension of reformation as defined by economist Manmohan Singh. Students should read the newspaper ‘Economic Times’ daily to read their definition of Reformation. Reformation means growth of capitalism and giving keys of all treasuries to corporate houses and foreigners.
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